चपाती और सेकूं क्या?

 


नीता राजस्थान के मारवाड़ प्रांत से है जहाँ मान-मनुहार कुछ ज्यादा ही की जाती है. उसकी शादी जब बड़े शहर में तय हुई तो उसे बहुत फ़िक्र हो रही थी कि वहाँ के तौर-तरीके कैसे होंगे? मैं एडजस्ट कर पाऊँगी या नहीं?? जब उसके ससुराल वाले रोका करने आये तो उनका शानदार स्वागत हुआ. बहुत सारी मिठाइयाँ, स्वादिष्ट सब्जियाँ और पकवान बहुत आग्रह करके परोसे गये. सबने लड़की वालों की खातिरदारी की तारीफ की. बारात का स्वागत भी बहुत ही बढ़िया हुआ.

जब नीता विदा होकर ससुराल पहुँची तो कमलाजी उसे बार-बार खाने-पीने के लिए ही पूछती रहती. नीता खुश हुई, “वाह! मेरी सासू माँ तो कितनी मनुहार करती है. एक ही चीज के लिए दस बार पूछती है. लेकिन पाँच दिन बाद जब उसके दोनों छोटे भाई पगफेरे की रस्म के लिए लेने आये तो उसे समझ आया कि इस मनुहार के पीछे भाव ये है कि अगला मना कर दे. क्योंकि वे बार-बार खाते समय आकर पूछ जाती, “चपाती और सेकूं क्या??” फिर एकबार उसके चाचा उसी के ससुराल की ओर कोई शादी अटेंड करने आये. लंच का समय था तो वो डाइनिंग पर खाना परोसने लगी तभी कमला जी ने कहा, “जब समधीजी शादी में आये हैं तो खाना भी वहीँ खायेंगे. अगर यहाँ खा लिया तो इनके दोस्त नाराज हो जायेंगे.”

दरअसल उसके चाचा को हार्ट ट्रबल होने से वो फ्राइड खाना नहीं खाते थे. नीता को भी लगा कि चाचाजी जब इतनी मिठाई, फल और ड्राई फ्रूट्स लाये, तो मम्मीजी को बुरा नहीं लगा लेकिन दो चपाती-दाल, सब्जी खाने लगे तो उन्हें बुरा लग गया.

ससुराल में सभी को उनकी इस बात की आदत हो चुकी थी इसलिए कोई बुरा नहीं मानता था लेकिन अक्सर मायके में “कितनी रोटी सेंकू?” – ये डायलाग बोलकर सब हँसने लगते. कमला जी का पीछे से मजाक बनाते.

एक दिन नीता के देवर का दोस्त घर पर अकेला था तो उसने उसे खाने पर बुला लिया. नीता ने उसे बहुत अच्छी तरह से सबकुछ परोसा. उसे सलाद पसंद नहीं था तो उसने नहीं खाया. कमला जी जैसे ही वहाँ आई तो चटपट बोल पड़ी, “अरे, इस प्लेट में दो पापड़ थे कहाँ गए? नीता! देखकर ही चपाती सेंकना, कहीं ठंडी न रह जाये और बेटा! ये सलाद तो खा ही लो, बेकार जायेगा.” नीता को मन में बहुत शर्म आई. आज तक एक कहावत तो सुनी थी - गिन-गिन के बदले लेना लेकिन मेरी सासूमाँ तो गिन-गिनकर खिलाती है.

दोस्त के जाने के बाद सुधीर बोलने लगा, “माँ! मेरा दोस्त आये तब तो कम से कम मत पूछा करो और रोटी लेगा क्या?? इतना पूछोगे तो कोई भी मना ही करेगा. थाली पर बैठने के बाद तो किसी को भूखा मत उठाओ.”

अब नीता को भी कहने की हिम्मत आई, “मम्मीजी! आटे में क्या घाटा. बर्तन तो एक जैसे रखो. खाने की सुगंध से भूख जागती है और परोसी हुई थाली खूबसूरत हो तो भूख चौगुनी हो जाती है. कितना भी अच्छा खाना बनाओ पर आप ये जले हुए अलग-अलग साइज़ के बर्तन में परोसकर सारी भूख मार देते हो.”

“मुझे दिखावे के लिए फिजूलखर्ची करना बिल्कुल पसंद नहीं है. खाना बासी न बचे इसलिए पूछ लेती हूँ; इसमें क्या बुरा है? बाकी मनुहार तो पूरी करती ही हूँ.”

“मम्मीजी! मुँह से मनुहार करने के बजाय परोस ही दो. क्योंकि हर व्यक्ति कम से कम दाल, चावल, दो-तीन चपाती, सब्जी और सलाद तो खायेगा ही. मिठाई तो हम वैसे भी नहीं खिलाते. कम से कम खाना तो पूरा खिलाये. दूसरी बात हम गृहस्थ है और समाज में रहते है इसलिए हमें इतना तो मेंटेन करके चलना ही पड़ेगा कि क्राकरी ढंग की हो.”

दोस्तों! आप भी कई ऐसे लोगों से मिलते होंगे जिन्हें दूसरों को खिलाना पसंद नहीं होता. पर ये बात सच है कि जैसी नीयत होती है, वैसी ही बरकत होती है. हमारे वैदिक धर्म में पञ्च यज्ञ का विधान है. आज की मॉडर्न सोसाइटी में हम वो तो नहीं कर सकते पर किसी मेहमान को भरपेट पूरी भावना से खिलाकर हम पुण्य कमा सकते है इसलिए हर बात में कंजूसी नहीं करनी चाहिये.  


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