परित्यक्ता ही क्यों; परित्यक्त क्यों नहीं?
"मरे हुए पति का सब्र आ जाता है लेकिन छोड़े हुए का नहीं. हमारे समाज में विधवा के जीवन से भी ज्यादा मुश्किल तलाकशुदा का जीवन है. एक बार फिर विचार कर ले गरिमा! कैसे पालेगी दो-दो बच्चों को अकेले."
"जैसे अभी पाल रही हूँ आंटी!
विनोद का होना न होना बराबर है. मुझे ही जॉब करके इनकी पढाई का खर्च उठाना होता है, घर-बाहर सब मैं ही तो देखती हूँ."
"लेकिन बेटा! अभी लोग तुझे
सम्मान की नज़र से देखते हैं. बाद में वही लोग तुझ पर आक्षेप लगाएंगे. तेरा बाहर
निकलना मुश्किल कर देंगे. समाज के ताने तुझे छलनी कर देंगे."
"मैंने को समाज को खुश रखने का
कोई ठेका ले रखा है. एक झगड़ालू और नाकारा आदमी के साथ मैं सिर्फ इसलिए रहूँ कि ये
समाज का नियम है, उसकी इच्छा है! और
मेरी इच्छा कुछ नहीं."
"अब दो बच्चों की जिम्मेदारी के
बाद तेरी कौनसी इच्छा बाकी है?"
"सुकून से जीने की इच्छा! इस
उम्र में दुबारा शादी करने का मैं सोच भी नहीं सकती क्योंकि हो सकता है मुझे भले
ही पति मिल जाये लेकिन मेरे बच्चों को कभी पिता का प्यार नहीं मिलेगा. मैं अपने
बच्चों को माँ-पिता - दोनों का प्यार अकेले दूँगी लेकिन सुकून की जिंदगी जिऊंगी.
सास-ससुर और पति की लड़ने की कर्कश आवाजों के बीच मैं इनका बचपन कुंठित नहीं होने
दूँगी. भले मैं इन्हें रईसी की जिंदगी न दे पाऊँ पर शांतिपूर्ण जीवन जरूर दूँगी."
ऐसे फैसलें अकेले नहीं लिए जाते; सबसे
बात करके, समझदारी से निर्णय लेना होता है. तेरी माँ और भाभी तेरा सपोर्ट करती है
इसका ये मतलब नहीं कि वो जिन्दगी भर तुझे घर में बैठा ले.”
“वो तो मैं भी नहीं बैठूंगी. हर घर की
अपनी व्यवस्था होती है, अपना सामाजिक दायरा होता है, मिलने-जुलने वाले लोग होते
हैं. फेरे होते ही मैं उस घर के लिए मेहमान हो गई. वो कितना भी स्नेह से कहें साथ
रहने के लिए लेकिन मैं अलग घर ही लूंगी. रिश्तेदारों को तो पता है लेकिन मैं नहीं
चाहती कि कल को भैय्या-भाभी के दोस्त घर आये तो मुझे अपना परिचय एक परित्यक्ता के
रूप में देना पड़े. खुद भैय्या-भाभी भी शर्मिंदगी महसूस करते हुए मेरी वजह से अपना
सामान्य जीवन न जी पाए.”
“अब तू खुद परित्यक्ता जैसे शब्द का
प्रयोग कर रही है. इसका मतलब तुझे आभास है कि अब किसी की शादी में जाने पर कोई तुम्हें
दूल्हा-दुल्हन को हल्दी लगाने को नहीं कहेगा, सुहाग पूजा में तुझे सुहागिन मानकर
कोई मान नहीं देगा. क्या सहन कर पायेगी ये सब?”
“ये समाज के नियम हैं और ये हम जैसे
ही कुछ लोगों ने बनाये हैं लेकिन मैं इन सबसे कोसो दूर रहने वाली हूँ क्योंकि लाख टके
की बात ये है कि अब मेरे सामने मेरे दोनों बच्चे – मेरा लक्ष्य बनकर खड़े है. क्रोध
में पागल होकर सास-ससुर और पति ने जब इन्हें अपना खून मानने से ही इंकार कर दिया
तो इनका सहारा सिर्फ मैं हूँ और मेरा ये दोनों हैं. मैं तो फिर भी चुपचाप निभाये
जा रही थी रिश्ता लेकिन उन लोगों ने ही बेतुके से कुतर्क देकर मुझे घर से निकाला.”
“गुस्से में कभी आदमी को ध्यान नहीं
रहता; ऐसे ही कह दिया होगा; तू इतना दिल पर क्यों ले रही है? गुस्सा ठंडा होगा तब
अपने आप मनाकर ले जायेंगे तुम तीनों को!”
“काश! वो दिन आये. उसी आस में मैं अब
तक चुप थी लेकिन मेरे कोई निर्णय लिए बिना उन्होंने कोर्ट केस की पहल कर दी तो
मेरी आखिरी उम्मीद भी टूट गई. अब मजबूरन मुझे भी केस करना होगा. जब दादा-दादी खुद
मासूम बच्चों को पुलिस स्टेशन और कोर्ट की दहलीज दिखाना चाहते हैं तो मैं क्या कर
सकती हूँ. मैंने आगे बढ़कर तलाक के लिए आवेदन नहीं किया है. मैं चुपचाप सब बर्दाश्त
कर रही थी. लेकिन अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा है. ”
“पर ताली दोनों हाथ से बजती है. लोग
तुझे भी बराबर का दोषी ठहराएंगे. कर पायेगी उन तीखे तानों का सामना?”
“ये तो समाज की पुरानी रीति है कि
रामायण युद्ध के लिए सीता और महाभारत के लिए द्रौपदी दोषी थी. आज भी गलती तो हर
हाल में ओरत की ही होती है. चलो मान लिया कि कुछ मामलों में मैं परिपक्व नहीं थी
तो वे मुझे प्यार से समझा सकते थे. जब उनकी कई कमियों को मैं नजरंदाज कर सकती हूँ
तो मेरी महज कुछ बातों को वो एडजस्ट नहीं कर सकते! एक ओरत बच्चे भी संभाल ले, घर
का काम भी कर ले, जॉब भी कर ले और फिर उस पर आपके तानों का मुड़कर एकबार भी जवाब न
दे. फिर कभी एक लाइन में जवाब दे भी दे तो आप उसे घर से निकालकर तलाक का नोटिस भेज
दें. अब इतना सहने के बाद लोगों के ताने ही सुनने है तो वो भी सुनने की क्षमता है
मुझमें क्योंकि मैं एक माँ हूँ. इनका पिता इन्हें बाहर निकालकर अपनी जिम्मेवारी से
भाग सकता है लेकिन मैंने तो अपना पूरा जीवन इन दोनों पर वार दिया है.”
“बात तो सच है बेटा! इतना सहकर तो तू
फौलाद हो चुकी है और दोनों बच्चे तेरी शक्ति बन चुके हैं. धिक्कार है ऐसे लोगों पर
जो तेरे जैसे हीरे को पत्थर मान रहे हैं. आज नहीं तो कल उन्हें पछतावा जरूर होगा
पर तू ऐसे लोगों के महज नाम के पीछे अपने जीवन को ग्रहण न लगा. जल्दी से कोर्ट में
कार्यवाही कर. अपना हक़ ले. जरूरत हो तो मैं तेरे साथ चलूंगी.
काश! जैसे आपने मुझे समझा मेरी सास
मुझे समझ लेती तो मेरी स्थितियां अलग होती लेकिन सच में ओरत ही ओरत की सबसे बड़ी
दुश्मन भी है और दोस्त भी है.”
सास भले ही न समझे लेकिन अब पूरे समाज
को ये समझने की जरूरत है कि अगर किसी लड़की का घर टूटता है तो वो अकेले इसके लिए
जिम्मेवार नहीं होती. फिर बदकिस्मती से ऐसा हो भी जाये तो उसे हेय दृष्टि से
बिलकुल नहीं देखना चाहिए. उसे भी बराबरी से ससम्मान समाज में जीने का हक मिलना ही
चाहिए. साथ ही लड़के के लिए भी परित्यक्त शब्द का प्रयोग होना चाहिए क्योंकि शादी
तो दो लोगों की होती है और टूटती भी दोनों की ही है.

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