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Showing posts from April, 2020
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4. आवारा चाँद जब भी उस सितमगर का जिक्र चलता है एक कहर-सा जिस्मों-जां पर गुजरता है आज भी वो कहकशां की मानिंद मेरे अल्फाजों की दुनिया को छलता है, कहने को वो बेगाना है फिर क्यों, पूरी दुनिया से हटकर खासो-खास लगता है, उसकी रूहानियत जिस्म में ढल न सकी, इसी बात से वो मुझे आवारा चाँद लगता है, बेवजह वो मेरे इंतजार में तारे गिनता है, मुझे तो खुद में खो जाना ही पाकीज़ा लगता है, कासिद से कह दो उसे मेरे न आने की खबर दे, उसका तराना अब मुझे नामाकूल लगता है, मेरी शब की गुमनामियां ये रंग लाई कि अब सहर का इस्तकबाल कमाल लगता है, दिलजले अब करने लगे जीना गवारा, उसकी बेसब्री का चर्चा आम लगता है, रुख से पर्दा हटा भी दें तो ऐतराज क्या, अब उसका दीदार नामुनासिब लगता है,
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3 . अनुभूति   जितना डूबती गई तुममें , हल्की होती गई , जितना छोड़ा संसार को ,   तुममें गहराने लगी , जब तक उठा रखे थे बोझ अदृश्य कांधों पर , तुम न आये तब तक मुझे अपनाने को , जब मुठ्ठियाँ खोल दी मैंने , मैं कुछ विचित्र हो गई , रीती हुई इस संसार से , तुम्हारी परछाई हो गई , तुम एक जादुई दरिया हो , जो ललचाता है , भरमाता है जब भागूं दूर तो अपनी ओर ले आता है , ये तय है कि तुम्हीं मेरे भाग्यविधाता हो , मैं उन्मादिनी तुम्हारी ही परछाई हूँ , मीरा जैसे डोली वन-वन ,   तुम्हारी ही भरमाई थी , राधा जैसे चहकी वन-वन ,   तुम्हारी ही आशनाई थी , प्रेम का जाल लिए तुम मेरा पीछा करते हो लो दे दिया मैंने खुद को , अब तो दर्शन दे दो , सुना है लौकिक आँखों से दिखना तुम्हें नहीं सुहाता है इसलिये खोला मेरा तीसरा नेत्र , ये तुम्हारी ही गाथा है , मेरे बूँद-भर प्रेम पर तुमने अनंत द्वार खोल दिये मेरे नन्हें समर्पण को राधा-मीरा से   मोल दिए   क्या तुम सबको ऐसे ही प्रतिदान देते हो या मैं कलियुग में भी विशेष प्रियपात्री हूँ तुम हो मेरे प्रियतम , मैं निर्द्वंद...
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2 . मुझे विदा दे दो कभी कलम यूँ मुझसे खफ़ा हो जाती है , लाख उठाओ पर दो हर्फ़ भी लिख न पाती है , बड़े जालसाज-से दिन होते हैं वे जब पोर स्याही सने होने को तरस जाते हैं , फिर कभी आलम यूं अंगड़ाई लेता है , शब्दजाल बुनते हुए मानस परेशां होता है , वो शैदाई रात का प्याला करवटों से भरा होता है , छिन जाता है सुकूं बरबस मुश्किल गुजारा होता है | बिस्तर पर चादर की सलवटें , बेचैनी की गवाही देती है , बेतरतीब फैले कोरे कागज़ , जब लफ्जों से दरफ्शां होते है , कुछ मिल जाता है नेमत जैसा , ये अहसास शब्दों में बयाँ न होता है , इक जोगी का जोग जैसे सध जाता है , सच्चे आशिक को माशूक मिल जाता है , बेसुखन ज्यों स्वाद बयाँ न कर पाता है , ऐसा गुमां कलम चलाते आता है , ले लो मुझसे सब सांसारिक , पर डूबने दो ख़ुद ही में , मुझे ख़ुदी का असली स्वाद तभी आता है , जब कागज़-कलम मेरे सिरहाने-पैताने दिखता है , यही मेरी इबादत , मेरी साधना है , रम जाऊं अपने भीतर , यही प्रबल वासना है , मेरे हिस्से के सुख संसारी , किसी को दान में दे दो , छोड़ दो मुझे एकांत में , बस एक यही नेमत दे दो , ना पूछो कि क्या खुमा...
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1 . फना   इस कदर उसकी मानिंद होने का जी चाहता है , उसमें फना हो जाने का ख्याल सर उठाता है , वो बनके सबा फिजाओं में बहता है , मुकम्मल होकर मेरे आलिंगन को ललचाता है , कई बहानों से उसे रोक देती हूँ मगर , उसकी आशनाई में बहक जाने को जी चाहता है , काश निकल जाऊं इक सफर पर कहीं दूर , उसकी परछाइयों से दामन छुड़ाने का इल्म भाता है , क्या होगा वो सफर खुशनुमा उसके बिना , बस इसी दौर को आजमाने का जी चाहता है , कहते हैं जी लेते हैं हम किसी के भी बिना , फिर क्यों इक कंधे पर सिर रखकर रोने को जी चाहता है , शिकवा-ए-दौर का वो आलम बदलने के बाद , तितलियों-सी रंगीन हो जाने का ख्याल भरमाता है , लाख रोका मैंने अनसुनी सदाओं को , पर वो क्यों मुझे पुकारने से बाज नहीं आता है , दफ़न कर दिये मैंने बेतुके अरमां किसी कोने में , फिर क्यों इक गूँज से मेरा तन्हा आलम सहम जाता है , पोशीदा आँखों को भींचने के बाद भी , क्यों वो धुँधला अक्स मुझे दहलाता है , ये खुद से भाग जाने का दौर है या जमाने से नाराजगी , मन अब बैठे इसी पहेली की गुत्थियां सुलझाता है , काश इक बार मुझे उस कैद से रिहाई मिल जाये ,...