1. फना
इस कदर उसकी मानिंद होने का जी चाहता है,
उसमें फना हो जाने का ख्याल सर उठाता है,
वो बनके सबा फिजाओं में बहता है,
मुकम्मल होकर मेरे आलिंगन को ललचाता है,
कई बहानों से उसे रोक देती हूँ मगर,
उसकी आशनाई में बहक जाने को जी चाहता है,
काश निकल जाऊं इक सफर पर कहीं दूर,
उसकी परछाइयों से दामन छुड़ाने का इल्म भाता है,
क्या होगा वो सफर खुशनुमा उसके बिना,
बस इसी दौर को आजमाने का जी चाहता है,
कहते हैं जी लेते हैं हम किसी के भी बिना,
फिर क्यों इक कंधे पर सिर रखकर रोने को जी चाहता है,
शिकवा-ए-दौर का वो आलम बदलने के बाद,
तितलियों-सी रंगीन हो जाने का ख्याल भरमाता है,
लाख रोका मैंने अनसुनी सदाओं को,
पर वो क्यों मुझे पुकारने से बाज नहीं आता है,
दफ़न कर दिये मैंने बेतुके अरमां किसी कोने में,
फिर क्यों इक गूँज से मेरा तन्हा आलम सहम जाता है,
पोशीदा आँखों को भींचने के बाद भी,
क्यों वो धुँधला अक्स मुझे दहलाता है,
ये खुद से भाग जाने का दौर है या जमाने से नाराजगी,
मन अब बैठे इसी पहेली की गुत्थियां सुलझाता है,
काश इक बार मुझे उस कैद से रिहाई मिल जाये,
खुले मैदान में कुलाँचे भरने का जी चाहता है,
कुछ अनदेखे नकाब लिपटे है मेरे इर्द-गिर्द,
उन्हें उतारकर आईना देखना कभी बेहद भाता है,
सावन की झड़ी में भीगकर आँसू छिपाना रास आता है,
उसका ख्याल भींच लेती हूँ इस तरह कि कभी,
साँसों में वो उदास चेहरा शिकायतों के पुल बनाता है,
न जाने कैसे लोग ताउम्र रह लेते हैं अनजानों के साथ,
मुझे तो उस जाने-पहचाने से भी दामन छुड़ाना भाता है,
उसका कातिलाना अंदाज इतना नफीस है कि,
हर बार उसके हाथों जां गवाने का जी चाहता है,
रूह की आशनाई को जिस्म से जोड़ने वाले को,
कभी न देखने का गुमां मन में आता है,
जिसे बेखुदी में खुदा का दर्जा दे दिया,
उसकी हसरत पर दिल हँसता जाता है,
दिले-खुशफहम कितना मासूम रहता इक दौर में,
परियों के किस्से भी सच मानता जाता है,
उसकी रहनुमाई में ख़ुद को डुबो दूँ इस कदर,
मेरा आईना भी मुझसे भागता नजर आता है,
हस्ती निखर आती है दूर होकर इस तरह,
यही आजमाइश हर जन्म में जीने का इरादा है,
आती है हँसी वाइज के पाक दामन पर,
रूह के सफर में खो जाना रास आता है,
दबा रखें हैं मैंने काफिरों के नाम होठों पर,
माशूक मिलने पर सबको माफ़ करने का वादा है,
दुश्मनी का दौर खत्म होगा एक दिन,
तब तक हर आलम में ख़ामोश रहना भाता है,
अब इस दर्द के साथ जीना रास आने लगा है,
अब तो काफ़िर भी मेरी तारीफ़ पर आमादा है,
बेशक वो चाँद से ज्यादा खूबसूरत है,
पर हमारा भी उसे पा लेने का खुद से वादा है,
छोड़ दे ए यार मुझे इसी हालत में,
मुझे जीते-जी अपनी हस्ती मिटाना आता है|
इस कदर उसकी मानिंद होने का जी चाहता है,
उसमें फना हो जाने का ख्याल सर उठाता है,
वो बनके सबा फिजाओं में बहता है,
मुकम्मल होकर मेरे आलिंगन को ललचाता है,
कई बहानों से उसे रोक देती हूँ मगर,
उसकी आशनाई में बहक जाने को जी चाहता है,
काश निकल जाऊं इक सफर पर कहीं दूर,
उसकी परछाइयों से दामन छुड़ाने का इल्म भाता है,
क्या होगा वो सफर खुशनुमा उसके बिना,
बस इसी दौर को आजमाने का जी चाहता है,
कहते हैं जी लेते हैं हम किसी के भी बिना,
फिर क्यों इक कंधे पर सिर रखकर रोने को जी चाहता है,
शिकवा-ए-दौर का वो आलम बदलने के बाद,
तितलियों-सी रंगीन हो जाने का ख्याल भरमाता है,
लाख रोका मैंने अनसुनी सदाओं को,
पर वो क्यों मुझे पुकारने से बाज नहीं आता है,
दफ़न कर दिये मैंने बेतुके अरमां किसी कोने में,
फिर क्यों इक गूँज से मेरा तन्हा आलम सहम जाता है,
पोशीदा आँखों को भींचने के बाद भी,
क्यों वो धुँधला अक्स मुझे दहलाता है,
ये खुद से भाग जाने का दौर है या जमाने से नाराजगी,
मन अब बैठे इसी पहेली की गुत्थियां सुलझाता है,
काश इक बार मुझे उस कैद से रिहाई मिल जाये,
खुले मैदान में कुलाँचे भरने का जी चाहता है,
कुछ अनदेखे नकाब लिपटे है मेरे इर्द-गिर्द,
उन्हें उतारकर आईना देखना कभी बेहद भाता है,
सावन की झड़ी में भीगकर आँसू छिपाना रास आता है,
उसका ख्याल भींच लेती हूँ इस तरह कि कभी,
साँसों में वो उदास चेहरा शिकायतों के पुल बनाता है,
न जाने कैसे लोग ताउम्र रह लेते हैं अनजानों के साथ,
मुझे तो उस जाने-पहचाने से भी दामन छुड़ाना भाता है,
उसका कातिलाना अंदाज इतना नफीस है कि,
हर बार उसके हाथों जां गवाने का जी चाहता है,
रूह की आशनाई को जिस्म से जोड़ने वाले को,
कभी न देखने का गुमां मन में आता है,
जिसे बेखुदी में खुदा का दर्जा दे दिया,
उसकी हसरत पर दिल हँसता जाता है,
दिले-खुशफहम कितना मासूम रहता इक दौर में,
परियों के किस्से भी सच मानता जाता है,
उसकी रहनुमाई में ख़ुद को डुबो दूँ इस कदर,
मेरा आईना भी मुझसे भागता नजर आता है,
हस्ती निखर आती है दूर होकर इस तरह,
यही आजमाइश हर जन्म में जीने का इरादा है,
आती है हँसी वाइज के पाक दामन पर,
रूह के सफर में खो जाना रास आता है,
दबा रखें हैं मैंने काफिरों के नाम होठों पर,
माशूक मिलने पर सबको माफ़ करने का वादा है,
दुश्मनी का दौर खत्म होगा एक दिन,
तब तक हर आलम में ख़ामोश रहना भाता है,
अब इस दर्द के साथ जीना रास आने लगा है,
अब तो काफ़िर भी मेरी तारीफ़ पर आमादा है,
बेशक वो चाँद से ज्यादा खूबसूरत है,
पर हमारा भी उसे पा लेने का खुद से वादा है,
छोड़ दे ए यार मुझे इसी हालत में,
मुझे जीते-जी अपनी हस्ती मिटाना आता है|

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