3. अनुभूति 

जितना डूबती गई तुममें,
हल्की होती गई,
जितना छोड़ा संसार को,
 
तुममें गहराने लगी,
जब तक उठा रखे थे बोझ अदृश्य कांधों पर,
तुम न आये तब तक मुझे अपनाने को,
जब मुठ्ठियाँ खोल दी मैंने,
मैं कुछ विचित्र हो गई,
रीती हुई इस संसार से,
तुम्हारी परछाई हो गई,
तुम एक जादुई दरिया हो, जो ललचाता है, भरमाता है
जब भागूं दूर तो अपनी ओर ले आता है,
ये तय है कि तुम्हीं मेरे भाग्यविधाता हो,
मैं उन्मादिनी तुम्हारी ही परछाई हूँ,
मीरा जैसे डोली वन-वन,
 
तुम्हारी ही भरमाई थी,
राधा जैसे चहकी वन-वन,
 
तुम्हारी ही आशनाई थी,
प्रेम का जाल लिए तुम मेरा पीछा करते हो
लो दे दिया मैंने खुद को,
अब तो दर्शन दे दो,
सुना है लौकिक आँखों से दिखना तुम्हें नहीं सुहाता है
इसलिये खोला मेरा तीसरा नेत्र,
ये तुम्हारी ही गाथा है,
मेरे बूँद-भर प्रेम पर तुमने अनंत द्वार खोल दिये
मेरे नन्हें समर्पण को राधा-मीरा से मोल दिए 
क्या तुम सबको ऐसे ही प्रतिदान देते हो
या मैं कलियुग में भी विशेष प्रियपात्री हूँ
तुम हो मेरे प्रियतम,
मैं निर्द्वंद भाव से कहती हूँ,
तुम बहते शिरा-शिरा में,
मैं निश्चिंत भाव से कहती हूँ,
ऐसा तराशा तुमने कि मैं बेखुदी में खो गई
ठुकराकर इस दुनिया को तुम्हारे बाहुपाश में सो गई,
उम्मीद है ये नींद जन्मांतर तक नहीं टूटेगी,
मैं सोई तुम्हारी बाँहों में ये दुनिया देखेगी,
अब कोई शर्म, संकोच नहीं,
मैं तुम्हारी परणाई हूँ,
त्यागा संसार का मोह तभी तो तुम्हारी शरण आई हूँ
मेरी आँखों में छाया हल्का-सा नशा,
 
होठ मौन है,
मूलाधार हो रहा स्पंदित,
अंगुलियाँ लिखने को बैचैन है,
क्या आयेगा वो दिन जब लिखना मुझे न भायेगा,
डूब जाऊँगी तुममें इतना कि सांसों का भार सहा न जायेगा
अगर ये मुक्ति की अनुभूति इतनी पावन है
जो घट गई गर तन-मन पर तो जीवन मधुबन है
ले चलो मुझे वहां,
जहाँ राधा संग तुम नाचे थे,
सिखा दो वो दिव्य रास,
जब सांसारिक विकार भागे हैं,
मेरे समर्पण का रंग इतना गहरा होगा
स्वयं कान्हा मेरे अंक में बैठा होगा
अब जन्म-जन्मांतर तक तुम्हीं मेरे लक्ष्य हो,भाग्य हो
मैं तुम्हारी संगिनी, तुम्हारी अनुगामिनी, तुम मेरा प्राप्य हो||

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