जब भी रंजिशों-रुसवाई का दौर चलता है,
उसकी याद का मेला मेरे जेहन में लगता है,
उस मेले में कनखियों के ऊँचे झूले सजते है,
दिल टूटने- जुड़ने के खिलौने बिकते हैं,
वादों- मनुहारों की कठपुतलियों के खेल चलते है,
चाट के चटखारें याद जवां करते हैं,
तमाशे देखकर बेसाख्ता हंसते हुए,
गुड्डे-गुड़ियाँ के ब्याह सच्चे लगते हैं,
हकीकत से रूबरू हो ख्वाब ओंधे मुंह गिरते है,
ऐसे आलम में मेले भी सूने लगते हैं,
उस लाखों की भीड़ में खो जाने का दिल करता है,
फिर घबराकर घर लौट आने का दिल करता है,
बुत को भी खुदा बना दिया इश्क ने
वो जताना अब वाहियात लगता है,
निशब्द रहकर आँसू पीने का दौर चलता है,
इश्क भले न छिपे दुनिया की नजर से,
पर आशिक को तो मौन ही फबता है,
लोग जब भी बेसबब सवाल करते हैं,
आशिक के दिल में वो मेले सिसकते हैं,
विसाले-यार का चर्चा नागवार गुजरता है,
लाख शिकवों के बाद भी वो भला लगता है,
कच्ची उम्र का सूनापन बेजार भले ही करता है,
अनजानी आस का दीया बिला नागा दिल में जलता है,
मालूम है वो गया है न आने के लिए
फिर क्यों इंतजार का आलम रहता है,
रास्ते सूने भले हो मगर,
उन पर गुल बिछाने का दिल करता है,
दिले-खुशफहम पर हंस देते हैं वाइज भी,
इन्सां को खुदा करने के गुमां पर रोते हैं,
पर जो कर न पाया दुनियावी इश्क रूह से,
वो क्यों जोड़ेगा तार उस पाकीज़गी से,
पहले करना होता है खुद को फना,
तक इश्क का बाग़ फलता है,
अब जो हो गया फना,
वो क्यों किसी चिंगारी से सुलगता है,
अब सुकूं का आलम मुझे गुलजार करता है,
यादों का मेला अब न मुझे छलता है.
उन छलनाओं को पीछे छोड़ आया हूँ,
रूहानी रिश्तों की गर्माहट का सरमाया हूँ|

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