7. दर्द का नगमा
काश मिला होता तू मुझे उस तपती धूप में तो सफर आसां हो जाता,
तेरा नाम ही मेरे छलनी जिगर का सहारा हो जाता,
मरुस्थल का एक दरिया पार कर इस मुकाम पर पहुंचा हूँ,
इस राह में तू कुछ और नहीं तो मेरे पाँव का छाला हो जाता,
तुझे देखकर बार-बार अपनेपन का अहसास पुख्ता होता है,
हमनवा न सही तू मेरे लिए तिनके का सहारा हो जाता,
जब कभी क्लांत पैरों में वो तपिश ताज़ा होती है,
मेरे साज पर दर्द का नगमा गवारा हो जाता है,
एक हम हैं जो समूचे लुट गये इश्क में,
इक वो है जो हमारे दर्द से किनारा कर गये,
गिला फिर भी मेरी फितरत का हिस्सा नहीं है,
एक वो हैं जो शिकायतों का अम्बार खड़ा कर गये,
फिर भी सफर पर मेरे पैर रुक न पाये,
मैंने मंजिल की ओर से कदम न भटकाए
आहिस्ता-आहिस्ता अपने ही सहारे बढ़ता चला मैं,
ख़ुद को खुदा का फ़रिश्ता समझता रहा मैं,
कोई हालात डिगा न पाये मेरे रूहानी सफर को,
बस उसे देखकर अक्सर ये खयाल आता है,
क्या मेरा उससे कोई पिछले जन्म का नाता है,
बस इसीलिये ये दिल उसकी आशनाई का मारा है,
मुझे सपनों में भी उसके तसव्वुर का सहारा है,
दुनियावी हालात को बदलने की ख्वाहिश रखने वाला,
मेरा दिल ही मेरा सबसे नफीस आशनारा है,
आज जब हालात मेरी मुठ्ठी से फिसले हैं,
तू सामने खड़ा मुझे बुलाता है,
मंजूर है तेरा हर रहमों-करम,
पर अब तो इस देह को माटी में मिल जाना है,
दूर के मुसाफ़िर! काश आता उस तपिश में तो,
मैं तमाम रंगीनियाँ तेरे नाम कर देता,
अब तो बस खालीपन ही मेरी मल्कियत का सहारा है|

Comments

Popular posts from this blog

परित्यक्ता ही क्यों; परित्यक्त क्यों नहीं?

अनैतिकता में न दें पति का साथ

चपाती और सेकूं क्या?