हाँ मैं लिखती हूँ, जब बाहर
कोई नहीं होता
हाँ मैं लिखती हूँ, जब भीतर
वो बसता है
यूं विलग नहीं वो, मेरे
अस्तित्व का हिस्सा है
पर कितनी शिद्दत से दस्तक
दे, यही सारा
किस्सा है|
हाँ मैं हंसती हूँ जब वो
मुझे सितारों के जहाँ में ले जाता है
हाँ मैं तरसती हूँ जब वो
मन की आँखों से ओझल हो जाता है
उस छलिये ने राधा मीरा को
भी ऐसे ही भरमाया है
कभी मैं इस विचित्र प्रेम
से घबराती ये कैसी माया है
क्यूँ यूं ही वो अनायास
आकर हृदय पटल पर अठखेली करता है
‘तुम मेरा ही अंश हो’ हौले से कहकर मन को आंदोलित करता है
‘हर जन्म में मैंने तुम्हें
यूं ही अपनाया है
इस रिश्ते को अनाम रखकर
तुम मुझे मान दो’
यही मेरी प्रत्याशा है
उठ रही हूँ जकड़न भरे
रिश्तों से ऊपर
कर रही हूँ उस निराकार का
आलिंगन
क्या चैतन्य रहने का इतना
खूबसूरत ईनाम मैंने पाया है
या वो छलिया खुद मुझे
बाहुपाश में बांधने आया है|
वो मेरी कलम का विस्तार है
विराम
वो मेरे विचारों का सरताज
है या आधार
क्यूं न इन प्रश्नों को
भूलकर उसे सर्वस्व समर्पण कर दूं
क्यों न अपनी चेतना से
उसके प्रेम को नस-नस में भर लूं
ठुकराकर इस बाहरी दुनिया
को, आत्मा में
रमण कर लूं
कुछ घट गया है दिव्य-सा, ऐसी
दीवानों सी हालत कर लूं
ऐसी दीवानों सी हालत कर
लूं||

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