10. आत्मा की प्यास
आज तन-मन पर एक लगन तारी है
उस मधुर तान में खोने की तैयारी है
वो बैठा निश्छल, मुझको पास बुलाता है
हमारे जन्मों के प्रेम की दुहाई देता जाता है
मैं प्रस्तुत हूँ आँखे बंद किये वहाँ जाने को
पर डरती हूँ, क्या जवाब दूंगी जमाने को
वो प्रताड़ित करते रहे मीरा सदृश संत को
फिर कैसे छोड़ देंगे मुझ सदृश कोमलांगी को
प्रेम का बल सब मुश्किलों से लोहा लेता है
उसका आत्मबल मुझे यूँ उकसाता है
सत्य ही वही तो इस सृष्टि का एकमात्र दाता है
कब तक छिपूंगी, मुझे बढ़ाने होंगे कदम
फिर वो उठेगा और थाम लेगा मुझे एकदम
काश मैं समझा पाती ये देहातीत अहसास है
स्पंदित होता तन, पर ये आत्मा की प्यास है|


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