साँप फुफकारे नहीं तो लोग उसे भी मार डालें.
बहू! तू बाजार कब जायेगी दूध-सब्जी लेने?
“पापाजी आज ऑफिस में
काम ज्यादा था; एक्टिवा भी खराब पड़ी है. ऑफिस से आते हुए ‘ये’ ही ले आयेंगे|
पन्द्रह दिनों के
लिए ही तो आया हूँ तुम्हारे साथ रहने. लगा यहाँ के प्रसिद्ध फल खाऊंगा. वो दिनभर
का थका कहाँ बाजार जायेगा. वैसे यहाँ पास ही तो है; तू चली जा पैदल”
राशि को पता था
मुन्ना को भी नहीं संभाल पायेंगे इसके दादाजी. उसे ट्राईसाइकिल पर बिठाकर बैग लेकर
निकली. शाम के छ बजे थे. नो बजे तो आ ही रहे थे पतिदेव. पर क्या करे?
आम, गीले अंजीर,
कटहल, ब्रेड लेकर आ गई क्योंकि बूंदाबांदी होने लगी थी. सब्जियाँ तो अभी कल ही ली
थी. वैसे भी सारा खर्च उसी के अकाउंट से तो हो रहा था. घर आते ही सुनने को मिला,
“ये क्या शाम को ज्योति जलाने का टाइम हो गया. तुम लेट कैसे हो गई. चलो अब आरती
करो. पाँच आरतियाँ पूरे क्रम से गाना. मैं और तेरी सास 40 साल से रोज ज्योति जलाकर
आरती गाते हैं तभी देख कितना शानदार बंगला बनवाया है हमने.”
चाय व ब्रेड का आनंद
लेने के बाद बहू से पूछा गया कि बाजार से क्या लाई है?
सुनकर मुँह बिचक
गया. अरे! ड्रम स्टिक नहीं लाई. अभी दाल के साथ क्या सब्जी बनेगी. चप्पल पहनते हुए
दादाजी बाहर निकले, “मुन्ना! तेरी माँ आम ले आई तो तेरे लिए तो कुछ लाना नहीं है;
अब मैं जाकर ड्रम स्टिक ले आता हूँ मेरे लिए. तुम लोगों को नहीं पसंद तो मैं भी न
खाऊ क्या?”
“पापाजी, डिनर ले आऊ
आपका?”
“अभी तो दस ही बजी
है. मैं एकबार और टॉयलेट जाऊंगा. पेट साफ़ नहीं हुआ.” वर्माजी की आँखे यूट्यूब पर जमी
थी
“ठीक है फिर ‘ये’
आपको परोस देंगे. मुन्ने के सोने का टाइम हो गया है. मैं भी जल्दी सोती हूँ. सुबह
ऑफिस रहता है.”
“फिर ऐसा कर ले ही
आ. बबलू क्या परोसेगा. हाँ मेरा वो काढ़ा तो उबाल दे.” वर्माजी ने मोबाइल से नजरें हटाते
हुए कहा.
“बहू! इन दिनों बबलू
का काम मंदा चल रहा है. वो बहुत परेशान रहता है. जब तक उसका पेमेंट नहीं आता तू घर
का रेंट दे दिया कर.” फोन पर ससुरजी ने राशि को समझाया. मेहनत तो ये बहुत करता है
पर क्या करें इसके ग्रह-नक्षत्र ही खराब है. कल ही देखी थी जन्मपत्री. कुछ अड़चने
है. अब तुम कमाने लगी हो तो ऐसे खर्च तो उठा ही सकती हो.”
साफनीयत होने की वजह
से उसने स्पष्ट बता दिया कि जैसे संस्कारों के साथ वो बड़ी हुई है वहां बेटी डोली में
बैठकर विदा होती है और अर्थी पर लेटकर ही पति का घर छोड़ती है. बस ये बात अनूप के
मन में गहरे पैठ गई थी. अब जब-तब वो अपनी प्रोफेशल लाइफ की भड़ास उस पर निकाल देता.
किसी भी घरेलू काम में उसकी मदद नहीं करता. न उसे आर्थिक सुरक्षा दे रहा था.
कितने बेखौफ हो जाते
हैं ऐसे सास-ससुर जिन्हें बहू को कुछ देना तो मंजूर नहीं पर बुढ़ापे में उससे सेवा
की उम्मीद पाले रहते हैं. न खुद कोई घर का काम करते न बेटे को करने देते. बहू जॉब
करके अपना व बच्चों का खर्च खुद निकाले; ये अघोषित व्यवस्था बना दी थी उन तीनों ने.
वो सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सब चुपचाप सहे जा रही थी. कभी आवाज उठाती तो
उसे मायके भेज देने की धमकी मिलती. उसकी आँखों के आगे छोटे भाई-बहनों का चेहरा घूम
जाता. अगर वो इस तरह निर्वासित होकर निकाली गई तो बिरादरी में उन दोनों की शादी
नहीं हो पायेगी.
एक दिन न जाने क्यों
उसे खयाल आया कि मैं सालों से इतना डर रही हूँ अकारण ही! डरना तो इन्हें भी चाहिये
क्योंकि बुढ़ापे में इन्हें भी सेवा तो चाहिये ही. फिर ये मुझसे नम्रता से बात
क्यों नहीं करते. आज मैं चली जाऊं तो भूखे तो हरगिज नहीं मरूंगी पर मेरे जाने पर
इन तीनों को न बिस्तर पर चाय-नाश्ता, खाना मिलेगा न धुले कपड़े. कमी तो इन्हें भी
महसूस होनी ही चाहिये. शायद मुझे होगी उससे कहीं ज्यादा इन्हें मेरी जरूरत है.
अपने अहं में ये स्वीकार न करें पर समाज में निंदा तो इनकी भी होगी. अब उसने जवाब
देने का पक्का इरादा कर लिया था. उसे उसकी खास सखी ने बताया कि अगर साँप फुफकारे
नहीं तो लोग उसे भी हलके में लेते हैं.

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