अपनी बहू सबको प्यारी/ हम क्यों मना करके बुरे बने
“ये क्या रेनू;
पौंछा तो लगाती जा! दीपावली को पूरा परिवार साथ खाना खाता है इसका ये मतलब तो नहीं
कि मेरे घर में गंदगी फैली रहे.” सविता ने अपने देवर की बहू को टोका.
“ताईजी; आरव को
बुखार है. चार घंटे से उसे मम्मी ही संभाल रही है, उन्हें उसकी दवा का पता नहीं है
इसलिए जा रही हूँ, नहीं तो मैं हमेशा पूरा काम करके ही जाती हूँ.” रेनू ने पल्लू
से पसीना पौंछते हुए कहा.
“पर तुझे मेरी तबियत
का तो पता है ही; दो दिन तक मेड भी नही आयेगी.”
हारकर उसने पौंछे की
बाल्टी उठाई. मोबाइल बार-बार बज रहा था. उसने अनदेखा करके 15 मिनट में झटपट पौंछा
लगाया और घर की ओर दौड़ी. आरव ने बहुत देर से कुछ नही खाया था. जल्दी से उपमा बनाकर
उसे खिलाया. दवाई दी और और अपनी सास को ताईजी की पौंछे वाली बात बताने लगी.
“तू तो अब आई है
रेनू! मैं तो पिछले तीस साल से उनका ये स्वभाव देख रही हूँ. शरीर सिर्फ उनका दुखता
है, बाकी तो सब उनकी नजर में रोबोट है. जब हम जॉइंट में रहते थे तब भी ऐसे ही
मुझसे सारे काम करवाती थी. पिछले दस साल से अलग होकर कुछ चैन आया है.”
“मम्मीजी! अब जब अलग
रहते है तो त्यौहार भी अलग क्यों नहीं मनाते? श्राद्धपक्ष में भी ऐसे ही दिनभर
लगकर काम करो, बराबर का खर्च भी दो और वे बड़ी बहू होने के नाते सारा श्रेय खुद ले
लेती है.”
“अब त्यौहार,
श्राद्ध पर साथ खाने की जो रीत चल रही है; उसे चलने दे. हम क्यों मना करके बुरे
बने. वैसे भी चार महीने बाद उनके घर भी बहू आ जायेगी तो तेरा बोझ कुछ हल्का हो
जायेगा.”
“मुझे तो नहीं लगता
कि ताईजी उससे इतना काम करवायेगी.”
“उनका नेचर ही है
हुकूमत करने का तो अपनी बहू को क्यों छोड़ेगी? तुम देखती जाओ बस!”
चार महीने बाद बहू
के आने के पर सबसे पहले मकर संक्राति का त्यौहार आया. सबका खाना साथ ही बनता था.
सारी तैयारी हो चुकी थी पर नई बहू का श्रृंगार ही खत्म नहीं हो रहा था. सारा खाना
बनने के बाद ढेर-से गहने और हेवी साड़ी पहने अणिमा बाहर आई. सबको नमस्ते किया और सविता
ने प्लेट परोस कर उसे दी और कहा, “जाओ बेटा! अपने कमरे में जाकर खा लो. अभी तो
नई-नई हो, बाकी सारी उम्र पड़ी है काम करने के लिए.”
दो महीने बाद होली
पर भी जब वो कमरे में आराम कर रही थी तो पता चला कि वो प्रेग्नेंट है सो किचन में
आने का तो कोई सवाल ही नहीं था. बस इसी तरह समय सरकता गया और उसकी गोद में नन्ही
गुड़िया आ गई. रेनू सारा काम करती और अणिमा के पूरे लाड-चाव होते.
एक दिन वो आरव को खाना
खिलाने लगी तो ताईजी ने कहा, “अरे चार साल का हो गया अभी तक खुद खाना नहीं खाता.
क्या रेनू! घर के सभी आदमी खाना खा रहे है और तू इसे लेकर बैठ गई. चल; पहले परोस
दे सबको. अब अणिमा की गुड़िया छोटी है नहीं तो उसे ही कहती.”
ताईजी की किचन साफ़
करके जब रेनू घर जाने लगी तो उसकी सास ने जेठानी के पाँव छूते हुए कहा, “भाभी! आगे
से हम अपने घर ही त्यौहार कर लेंगे. अब जब 365 दिन के लिए अलग हो गये तो 8-10
दिनों के लिए कैसा दिखावा!”
“इसमें दिखावा क्या
है? मैं बड़ी हूँ तो त्यौहार-श्राद्ध मेरे यही होंगे.” ताईजी ने बिफरकर कहा.
“भाभी! अणिमा जिस
तरह व्यस्त रहती है मेरी बहू को भी बहुत काम रहते है. आजकल की लडकियाँ है; कल को
जवाब दे देगी तो क्या करेंगे. मेरी तबियत भी आप ही की तरह खराब रहती है.” ऐसा कहते
हुए वो गेट से बाहर निकल गई.
“मम्मीजी! आज आप मना
करके बुरी क्यों बन गई?” घर आकर रेनू ने हँसते हुए पूछा.
“अपनी बहू सबको
प्यारी. उसकी बहू के क्या चार चाँद लगे है जो रसोई में काम नहीं करती और मेरी बहू
बच्चे को खाना तक नहीं खिला सकती. त्यौहार प्यार बढ़ाने के लिए होने हैं; न कि
दूरियाँ बढ़ाने के लिए. अबसे हम अपने ही घर में अपनी सुविधा से त्यौहार मनाएंगे.”
ये सुनते ही रेनू के
मन में अपनी सास के प्रति प्रेम और बढ़ गया. और उसे मना करके बुरा बनने में होने
वाला फायदा भी समझ आ गया.

मां सी सासु मां
ReplyDeletevery nice ritu
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