लगा इसके बाप को फोन!

 

शादी से पहले जब भी कुसुम आस-पड़ोस में पति-पत्नी के झगड़ें और सास-ससुर की दखलंदाजी की बातें सुनती तो उसे आश्चर्य होता कि ऐसा कैसे हो सकता है? कोई भी बात हो शांति से सुलझाई जा सकती है. हम घर की मेड को भी बड़ी तवज्जो देते हैं कि कहीं छोड़कर न चली जाये! फिर शादी तो एक धार्मिक और कानूनन संबंध है जिसे निभाने के लिए दोनों पक्षों को बहुत-से समझौते अनायास ही कर लेने होते हैं फिर न जाने ये मनमुटाव सार्वजनिक कैसे हो जाते हैं. रिश्तेदारों और पडौसियों को तो मुफ्त के चटखारे मिल जाते हैं बस! उसे कभी अपनी माँ और भाभी के बीच तकरार देखने को नहीं मिली.

बहुत ही सुलझे स्वभाव की कुसुम जब बहू बनकर सोनी परिवार में आई तो बिल्कुल आश्वस्त थी कि सास-ससुर जरूर उसकी सेवा से संतुष्ट हो जायेंगे और छोटी ननद रीमा तो उसे किसी सहेली की कमी महसूस ही नहीं होने देगी. बचे पतिदेव – आशुतोष, तो वो तो शिवजी की ही तरह इतने भोले है कि जो बोलो वही सही मानते है.

पर शादी के दो ही हफ़्तों में उसे पता चल गया कि ससुराल में सिक्का जमाना कोई बायें हाथ का खेल नहीं है. वो भी वहाँ; जहाँ ससुर और पति – दोनों; सास शांति जी के हाथ की कठपुतलियाँ हो और ननद अव्वल दर्जे की ईर्ष्यालु और कान भरने वाली. ये छोटा-सा परिवार उसे पहाड़ जैसा दुष्कर लगा. उसकी सासूमाँ ने हर काम में मीनमेख निकालने की महारत हासिल की हुई थी. जहाँ कुसुम की माँ हमेशा ये तारीफ करती कि मेरी बेटी बहुत साफ़-सफाई रखती है वहीँ सास ने ये घोषित कर दिया कि वो साफ़-सफाई के नाम पर साबुन-सर्फ़ बर्बाद करती है. उसके बनाये खाने में हमेशा कमी निकालती. आशुतोष सब देखते-सुनते हुए भी अँधा-बहरा बना रहता. ससुरजी को तो पत्नी की हाँ में हाँ मिलाने की आदत पड़ चुकी थी.

हालाँकि कुसुम को मायके में यही सीख मिली थी कि कभी पलटकर किसी को जवाब नहीं देना. पर जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा और कोई उसके पक्ष में आगे नहीं आया तो उसने नम्रता से किसी बेतुके सवाल का जवाब दे दिया. उसकी सास को ये सुनने की उम्मीद कतई नहीं थी. वो चिल्लाकर बोली, “देखो! इसके लक्षण. कल की आई मुझसे जबानदराजी करती है. लगा इसके बाप को फोन.”

वो आश्चर्यचकित हो गई कि इस बात में उसके पापा को बीच में लाने की क्या जरूरत है? कुछ शर्म तो आशुतोष को भी आई इसलिए वो वहाँ से चुपचाप खिसक लिया. फिर एक दिन सासू माँ ने सीन क्रिएट कर दिया. बात सिर्फ इतनी थी कि प्रेशर कुकर का ढक्कन टूटा था और उनके ख्याल में ये काम कुसुम ने किया था. उसे ससुराल आये बस छ महीने हुए थे और कुकर 15 साल पुराना था. उसने स्पष्ट कहा कि उसकी गलती से नहीं टूटा है. सास की बहस रुक ही नही रही थी. उसने इतना-सा कहा, “आपके लिए मेरे सच से ज्यादा ये पुराना कुकर इम्पोर्टेन्ट है?”

बस शांति जी को मौका मिल गया चीखने-चिल्लाने का! “लगा इसके बाप को फोन!”

हर बार जब नगण्य-सी बातों के लिए उसके पापा को फोन किया जाता तो वो सोचने लगते कि जो बेटी बचपन से लेकर आजतक कोई शिकायत नहीं लाई, वो कैसे गलत हो सकती है?? स्कूल, कॉलेज, पडौसी, रिश्तेदार – सब तारीफ करने वाले और महज सास बुराई करने वाली! गड़बड़ तो सास के स्वभाव में ही है पर बातें चुपचाप पी जाते बस! अपनी परवरिश पर पूरा विश्वास था. शुरू में कुसुम को शर्म आती कि मेरी शिकायतें पँहुचती हैं तो भाभी क्या सोचती होगी!!

फिर जब रोज का काम हो गया तो उसने भी चुप्पी साध ली. मायके जाने पर जब इस बारे में आमने-सामने बात होती तो वो ये कहकर बात ख़त्म कर देती कि ये शांति जी का स्वभाव है. क्या ध्यान देना. उनके लिए बहू के अलावा रिश्तेदार, पड़ौसी आदि सब खराब है. अच्छाई का ठेका तो उन चार सदस्यों ने ले रखा है. कोई बात नहीं उनके भी बेटी है. देर-सवेर समझ आ जायेगा.

कुसुम की शादी को पाँच साल हो चुके थे और अब एक बेटा भी उसकी गोद में था. सास-ससुर के साथ सामंजस्य बिठाने में तो सबको दिक्कत आती है. ननद ससुराल जा ही चुकी थी लेकिन उसे दुःख इस बात का होता था कि आशुतोष भी हर बात में माँ का समर्थन करके उन्हें और प्रोत्साहित करते हैं. अक्सर उसने आशुतोष से कहा, “एक बार आप ये भूल जाओ कि वो आपकी माँ है और मैं आपकी पत्नी. आप बिल्कुल तटस्थ होकर हमें दो इन्सान मान लो और ईमानदारी से ये निर्णय दो कि इंसानियत के नाते क्या उनका व्यवहार एक इन्सान के प्रति सही है क्या???”

आशुतोष कभी कठपुतली की भूमिका से बाहर आ ही नहीं पाया. एक दिन जब अति हो गई तो फिर शांतिजी चिल्लाई, “लगा इसके बाप को फोन!”

कुसुम ने अपना मोबाइल उठाया और कहा, “आज मैं लगाती हूँ मेरे पापा को फोन कि आकर मुझे ले जाये. अब मुझसे और नहीं निभेगा यहाँ.”

इस पर शांति जी के साथ ही उसके ससुर भी लेक्चर देने लगे पर आशुतोष ने आगे बढकर उससे मोबाइल ले लिया और कहा, “तुमसे कितनी बार कहा है माँ दिल की बुरी नहीं है; बस थोड़ा ज्यादा बोल देती है कभी. तुम चुप रह जाओ तो क्या हो जायेगा?”

“मैं तो ना दिल की बुरी हूँ और न दिमाग की! फिर भी वो मेरी कोई बात नहीं समझती क्योंकि वो पाँच सालों में भी मुझे इस घर की सदस्य मान ही नहीं पाई. हर छोटी-सी बात पर मेरे पापा को फोन लगाते हो क्योंकि आप आज भी मुझे सिर्फ उनकी बेटी समझते हो न अपनी पत्नी और न इस घर की बहू. जब घर का बच्चा कोई गलती करता है तो घर में मामला सुलझाते हो या दूसरों को खबर करते हो. जब मुझे विदाई के समय समझाया गया कि अब यही मेरा घर है तो मुझे वो माहौल तो दो कि मैं इसे अपना मान पाऊं. मुझे यहाँ अपनापन नहीं मिला इसलिए बेहतर होगा वहीँ चली जाऊं.”

कुसुम ने रोते हुए अपने पापा को फोन करके आने को कह दिया. मायका महज 50 किलोमीटर दूर था. उसके पापा दो घंटे में ही आ गए. इस बार वे भी सोचकर आये थे कि रोज-रोज के इस तमाशे का अंत ही कर देंगे. आज पहली बार आशुतोष को अंदर सूनापन महसूस हुआ.

कुसुम अपने पापा के गले लगकर सुबक रही थी. उसका तीन साल का बेटा सहमा हुआ उसके पल्लू में छिपा था तभी आशुतोष ने कहा, “कुसुम! तुम जाओ; चाय बनाओ. पापा! आप पहले बैठिये. आज मैं आपसे वादा करता हूँ कि आगे से आपको कोई शिकायती फोन नहीं आयेगा. आप निश्चिंत होकर कुसुम को यहाँ रहने दे. मेरी पत्नी होने के नाते उसकी हर खूबी और कमी; अब मेरी है. उसके समर्पण के लिए मैं उसका धन्यवाद करता हूँ और आजतक आपको की गई शिकायतों को भूल जाने का अनुरोध करता हूँ.”

बेटे का ऐसा रुख देखकर शांतिजी आश्चर्य में भर गई. पर उनका दिमाग तेजी से चलने लगा कि अब बुढ़ापा सामने है. इसे नाराज करके दोनों कहाँ जायेंगे. इसलिए बनावटी मुस्कान के साथ कहने लगी, “अब समधीजी! छोटी-मोटी बात तो हर घर में होती ही है. कुसुम तो साक्षात् लक्ष्मी है इस घर की पर मुझे इसका पलटकर जवाब देना बिल्कुल पसंद नहीं है. आप बस इसे समझाकर जाइये कि जवाब न दे. बाकी तो हम दोनों माँ-बेटी की जैसे रहते हैं.”

शांति जी के इस व्यवहार पर तो गिरगिट भी शरमा जाये. पर आशुतोष का रुख बदलत देख कुसुम ने ससुराल में ही रहने का फैसला किया और अपने पापा को हँसकर विदा किया.

दोस्तों! जिस घर की बहू की शिकायतें उसके मायके वालों को की जाती है वो बहू भी कभी ससुराल वालों को दिल से अपना मान ही नहीं पाती इसलिए बेहतर होगा घर की बात घर में ही सुलझा लें.

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