कुत्तों के भौंकने पर क्या ध्यान देना

 


“अरे अनीता! तू चाहे कितने भी बड़े शहर में रह, चाहे जितना रुपया कमा ले, कितनी भी मॉडर्न बन जा; सच्चाई यही है कि अगर तूने इस खानदान को बेटा नहीं दिया तो सब धूल है. पितरों को मोक्ष तभी मिलता है जब बेटा पानी देता है. शास्त्रों में ऐसा कोई विधान नहीं है कि बेटी सोलह संस्कार करवाये. बेटी के घर का तो पानी पीना भी वर्जित है. माना तेरी दोनों बेटियां बहुत सुन्दर है, पढने में भी होशियार है पर है तो पराया धन ही ना. बुढ़ापे में कौन करेगा तुम दोनों की सेवा. कोई पानी देने वाला नहीं रहेगा. दोनों सूने घर में तरसते हुए मर जाओगे. कैसे गति होगी तुम्हारी.” सीता भुआ ने अपना अर्जित ज्ञान बाँटा.

“पीछे कोई रहेगा नहीं तो सीख-बाड़ी आना भी बंद हो जायेगी रिश्तेदारों के यहाँ से! फिर पछताओगे कि एक चांस और क्यों नहीं लिया. तीन ऑपरेशन की इजाजत तो डॉक्टर देते ही हैं. हमें देख पूरे पाँच बच्चे पैदा किये. सब अपनी किस्मत लेकर आते है. कोई भूखा नहीं मरा.” ग्यारसी जीजी ने बात का समर्थन किया.

“अरे! पहले मुझे बताती; ऐसी दवा दिलवाती कि शर्तिया बेटा होता. तीसरे महीने में लेनी होती है गाय के दूध के साथ. इस बार बता देना. मैं दिलवा दूँगी. लीला मौसी कहाँ पीछे रहने वाली थी.

“मुझे तो बब्बाजी को देखकर दया ही आती है. हो जाता एक पोता तो चैन से परलोक जाते कि उनका बेटा अकेला नहीं रहेगा. पोते की लकड़ी मिलना भी भाग्य की बात है.” पार्वती भाभी ने बड़े ससुरजी के प्रति दया दिखाई.

सारी पंचायत खूब खा-पीकर अपने घर पधारी. इधर अनीता को रह-रहकर एक-एक की बात डंक की तरह चुभ रही थी. दो दिनों से उसे खोया-खोया देखकर राजन काफी कुछ समझ रहा था. फिर उसका दर्द इतना बढ़ा कि बिना बात बच्चियों पर गुस्सा करने लगी. ये बात बच्चियों के दादाजी और राजन – दोनों के वश के बाहर थी.  

राजन ने अनीता को पास बिठाकर समझाया कि वो इन अनपढ़ ओरतों की बकवास पर ध्यान न दें. और तीसरे बच्चे के बारे में तो सपने में भी नहीं सोचे.

“राजन! मुझे दोनों बच्चियाँ जान से भी ज्यादा प्यारी है. इन्हें खूब पढ़ाना-लिखाना भी तय ही है लेकिन मुझे चुभते है उनके ताने.”

“लोगों को ताने कसने के बहाने चाहिये और वे ताने तब ज्यादा चुभते हैं जब उस बात की तुम्हारे मन में कसक हो. उस कमी का अहसास जब हमें भी सालता हो. तब दूसरों की कही गई बातें हमें रह-रहकर रुलाती है. तुम पहले अपने दिमाग से ये बात निकालो फिर उनकी हर बात तुम हँसी में उड़ा दोगी.”

“राजन! बेटे ही बेटे होने पर लोग ताना क्यों नहीं मारते? सीमा भाभी के तीन बेटे है पर कभी किसी ने उन्हें ‘बेचारी’ नहीं कहा. क्या लड़की के बिना घर-आँगन सूना नहीं होता. मैंने तो कभी उनकी बहू-बेटियों पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की; फिर वो क्यों मुझे बिना माँगी सलाह देती ” अनीता ने आँसू पौंछते हुए कहा.

“लड़के की माँ सीना तान खुश होती है और जब बेटे की शादी हो जाती है तब बहुओं का रोना रोकर बेटी को याद करती है. तुम अपनी माँ की ही सोचो. जब तुम्हारी भाभियाँ उनका अपमान करती है तो फोन पर तुम्हारे पास ही दुखड़े रोती है. रही बात बेटे से वंश कायम रहने की तो तुलसीदासजी के बेटा तो दूर की बात कोई संतान ही नही थी. सीता राजा जनक की बेटी ही थी. लेकिन दोनों को उनके अच्छे कर्मों की वजह से आज भी याद किया जाता है. ये वो ओरतें हैं जो घर पर अपनी बहुओं से अपमानित होती है लेकिन बाहर सुखी होने का दिखावा करती है.”

“मैंने कहीं पढ़ा था कि भाई आपस में लड़ लेते हैं लेकिन बहनें कभी नहीं लडती. मैं भी यही चाहती हूँ कि अपनी दोनों बेटियाँ प्यार से रहे और भविष्य में एक-दूसरे का इतना ध्यान रखे कि लोग उनकी एकता की मिसाल दे.”

“ऐसा ही होगा लेकिन तब, जब तुम ये टीस अपने दिल-दिमाग से निकल दोगी और इन ओरतों के भौंकने को वैसे ही मन में नकार दोगी जैसे गली में भौंकते कुत्तों को नजरंदाज करती हो.”

इसलिए दोस्तों! मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इस तरह की दादी, काकी, जीजी, मौसी या भुआ कतई न बनें. उस माँ को हौसला दें जिसके बेटियाँ है क्योंकि उन बच्चियों के खाने-पीने, पढने-लिखने, शादी-ब्याह का खर्च तो माँ-बाप ही उठाएंगे, आप नहीं; तो कम से कम व्यंग्य बाणों से उसे इतना छलनी न करें कि आपकी कद्र कुत्ते से गई बीती हो जाये.

Comments

Popular posts from this blog

परित्यक्ता ही क्यों; परित्यक्त क्यों नहीं?

अनैतिकता में न दें पति का साथ

चपाती और सेकूं क्या?