आईना छिपा लिया

 


 

रंजिशों-गम की रात थी,

उसे शिकायतें बेहिसाब थी,

कहने को बहुत कुछ था,

सुनने को कहाँ कम था,

वो अपनी आदत से बेजार,

मैं ठहरी मौन की रसूखदार,

अब रात परेशां होती-सी,

सुबह की ओर सरकती-सी,

जब शब्दों में बातें ढलने लगी,

मैं कुछ खुद में सिमटने लगी,

मेरे खाते सारे कत्थई थे,

गुनाहों की दास्तां कहते थे,

वो गिना रहा था दोष मेरे,

इस पर होठ सिले रहे मेरे,

कोई भी सफाई बेकार थी,

मैं खुद में पाक-साफ़ थी,

पर मैं जब्त कर गई,

वो जद्दोजहद जीत गई,

अपना आँचल मैंने सहला लिया,

साथ लिया आईना छिपा लिया.

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