अब झूठन खाना बंद

 


“राम-राम! अन्न का ऐसा अपमान इस घर में पिछले चालीस सालों में नहीं हुआ. सीमा, रमा! तुम्हें शर्म नहीं आती खाना बाहर गाय-कुत्तों को खिलाते हुए जबकि तुम दोनों खुद उसे खा सकती थी.” सावित्री जी ने दोनों बहुओं को जोर से डांटा.

“पर मम्मीजी वो खाना झूठा था. दोनों भाइयों ने अपनी प्लेट में छोड़ दिया था. शास्त्रों के अनुसार झूठा खाना नहीं खाना चाहिये.” सीमा ने सपाट कह दिया.

“अब आप गुस्सा छोड़िये और गरमागरम खाना खाइये.” रमा ने बात सँभालने की कोशिश की.

“आजतक कभी खाया है मैंने अपने पति के खाने से पहले. तुम्हारे पापाजी को खिलाओ. मेरे लिए अलग प्लेट की कोई जरूरत नहीं. पति का बचा खाने वाली औरत सीधी स्वर्ग जाती है. मेरी सास ने मुझे यही सिखाया.”

“फिर तो सभी बुजुर्ग औरतें चाहे जितना पाप करें स्वर्ग जायेगी और आजकल की बहुएँ घोर नरक में जायेगी. ये भी अच्छा इंसाफ है.” सीमा ने फिर कहा.

“हमने कभी मुँह नहीं खोला अपनी सास के आगे और ये कल की आई मुझसे बहस कर रही है.”

“मम्मीजी आपकी शादी 12 साल की उम्र में हुई थी सो जैसा दादीजी कहती गई, आप करते गए. लेकिन हम लोग की शादी 26वें साल में हुई है. हम हर बात में तो आपके अनुसार नहीं ढल सकते हैं ना!”

“जरूरी नहीं कि जो अत्याचार आपने सहे; वे आप हमारी नियति में जान-बूझकर लिख दें. आपके पतिदेव का प्लेट में छोड़ा झूठन आप दोनों वक्त खाती हो तो आप कम से कम अपने बेटों को ये शिक्षा तो देती कि वो झूठा न छोड़े. बहू होने का ये मतलब नहीं कि आप हमें भी आपके बेटे का बचा हुआ खाना खिलाये. या तो उन्हें समझाओ कि प्लेट में उतना ही ले जितनी उनकी खाने की क्षमता है. अगर उन्हें खुद की भूख समझ नहीं आती तो अपने हाथों से फेंक दे खाना. हम बहुएँ झूठा खाकर क्या करोड़ों रूपये बचा लेंगी. अन्न के अपमान का पाप उन्हें चढ़ेगा; हम क्यों उच्छिष्ट खाएं?? काश आप 40 साल से ये नियम नहीं निभा रही होती तो अब तक पापाजी की आदत सुधर जाती.”

“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले. न आपने पहले आवाज उठाई, फिर न बेटों को सुधारा फिर हम बहुओं पर जबर्दस्ती नियम थोपे और हमारे आवाज उठाने पर सबसे पहले आप पापाजी और अपने बेटों की कमियों पर पर्दा डालती हो. लेकिन हम इस घर में आने वाली पीढ़ी को ये वातावरण कतई नहीं देंगे इसलिए अब झूठन खाना बंद. बहुएँ इन्सान नहीं होती क्या? देह स्त्री की मिली है लेकिन अंदर आत्मा तो एक जैसी ही होती है सभी में.”

“अगर आप शास्त्रों को मानती है तो हमारा झूठा कभी अपने बेटों को भी खिला दो ना! लेकिन आपके यही दोहरे मापदंड मन ने गुस्सा भर देते है. बहुत घिन आती है हम दोनों को जब हमें झूठी प्लेट में ठंडे हुए दाल-चावल खाने होते है. उसमें कहीं रायता लगा होता है तो कहीं आचार का टुकड़ा बचा रहता है. कभी सब्जी के कुछ टुकड़े बिना मसाले के रखे होते हैं.”

“इसलिए आज से हमने झूठे खाने को बाहर गाय-कुत्तों को खिलाने का फैसला किया है. अगर आपको ऐतराज है तो अपने बेटों को समझाओ कि वो झूठ न छोड़े.”

दोस्तों! कई परम्परागत घरों में आपको सावित्री जी जैसी सास मिल जायेगी. लेकिन सीमा और रमा की तरह अन्याय का प्रतिकार करना बहुत जरूरी है. चलिये! आज हम संकल्प लें कि अपने बच्चों को यही सिखायेंगे कि न वे किसी का झूठा खाये और न अपना झूठा किसी और को खिलाये.

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